शायर मुनव्वर राणा ने खोले जिंदगी के अनछुए पहलू,
पिता का हाथ बांटने के लिए तीन साल तक की ट्रक ड्राइवरी
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दैनिक भास्कर की ओर से रविवार को आयोजित कवि सम्मेलन 'देख बहारें होली की' में अपनी गजलों के मखमली भावों से हजारों श्रोताओं से रिश्तों की डोर बांधने वाले शायर मुनव्वर राणा सोमवार को दैनिक भास्कर कार्यालय आए। उनके अनुसार दर्द से ही शायरी पैदा होती है। वे कहते हैं, मैं उन लोगों में से नहीं हूं, जो चाहते हैं कि उनका बुत चौराहे पर लगाया जाए। मैं तो चाहता हूं कि ऐसा बनूं कि लोग पूछें बुत क्यों नहीं लगाया?
परिवार ने झेला विभाजन का दंश परिवार ने विभाजन के दंश को झेला। अधिकांश परिवार वाले पाकिस्तान चले गए, लेकिन हिंदुस्तान की सरजमीं से बेइंतहा मोहब्बत होने की वजह से पिता ने वतन नहीं छोड़ा। खानदान की परवरिश की जिम्मेदारी पिता पर आ गई, तो मानों रेत मुट्ठी से निकल गई। पिता ने तीस साल तक ट्रक चलाकर परिवार पाला। मैं तेज कदमों से चलने लायक हुआ तो पिता का हाथ बंटाने के लिए मैने भी तीन साल तक ट्रक ड्राइवरी की। खुदा का शुक्र है आज ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय है, पर पिता का संघर्षशील चेहरा आज भी आंखों में तैरता है। |
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गजल को जोड़ा मां से
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बचपन से ही शायर बनने की चाहत थी, क्योंकि मन में बगावत की आग थी। पर मां ने कहा बेटा जंजाल अच्छा है, कंगाल नहीं। मैंने दौलत से मोहब्बत तो नहीं की, लेकिन बच्चों ने खिलौनों की तरफ देख लिया था। जिस समय शायरी करनी शुरू की उस समय गजल महबूबा के आगोश में थी, कोठों की शामें रोशन करने चीज थी। मुझे मां से और रिश्तों से बेइंतहा मोहब्बत थी, बस लग गया गजल को महबूबा के आगोश से खींचकर मां के आंचल तक लाने में। आलोचना हुई, लेकिन मेहनत रंग लाई। एक कलम से कहां तक खींच लाए हम इस गजल को, महबूब से मां तक खींच लाए इस गजल को। मैंने अपनी रचनाओं में मां, पिता, बेटा, बेटी और बहन सभी को गूंथा है।
मां पर किए खर्चे को मिले टैक्स में छूट बिजनेस प्रमोशन के नाम पर बार गल्र्स को नचाने, महबूबा को तोहफे भेंट करने पर हुए खर्चे की तो हमारा कानून इजाजत देता है, पर मां के इलाज और मां की परवरिश पर होने वाले खर्चे पर हमारा कानून कोई छूट नहीं देता है। सरकार से गुजारिश है कि वो माता-पिता की परवरिश पर किए जाने वालो खर्चे पर इनकम टैक्स में छूट दे तो लाखों उपेक्षित मां-बाप की स्थिति सुधर जाएगी।
पिता को दी सफारी कार
संघर्ष के दिनों को याद करते हुए मुनव्वर बोले, ये मुफलिसी के दिन भी गुजारे हैं मैंने, जब चूल्हे से खाली हाथ तवा भी उतर गया। याद है वो दिन जब हम लोग दूर पैदल चले जा रहे थे। मुझसे चला नहीं जा रहा था, पिता मेरी थकान देखकर मुझे कंधे पर बिठाने की कहने लगे तो मैंने मना कर दिया। इस पर पिता बोले, बेटा जब लायक बन जाओ तो एक कार जरूर ले आना। खुदा की मेहरबानी हुई, मैंने जब कार खरीदने का प्लान किया तो सबसे पहले सफारी खरीदकर उसमें पिताजी को बिठाया। |
Wednesday, March 20, 2013
बड़े जतन से गजल पर मां का आंचल डाला है
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बहुत खूब
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